Skip to main content

Chap 30: VIVEKA - Story of Jadabharata

If misunderstanding the Self to be the not-Self is bondage, the understanding of the Self, brought about by differentiating (viveka) the Self from the not-Self is the means to liberation. This episode deals with the thought process by which one can differentiate the Self from the not-Self.

jadbharat and raja rahugana

एक समय सिंध देश के राजा रहूगण तत्त्व ज्ञान प्राप्ति कि इच्छा से कपिल मुनि के आश्रम की ओर जा रहे थे। रास्ते में पालकी उठाने वाला एक कहार भाग गया तो बाकी तीन कहार जडभरत को पकड़ लाए। उन्होंने पालकी उठाई। सम्पूर्ण भरतखण्ड के राजा जो स्वयं अनेकों बार पालकी में बैठे थे, आज पालकी उठा रहे हैं। अपनी प्रारब्ध भुगतनी ही पड़ती है। प्रभु के ध्यान में निमग्न भरत जी की अनोखी दशा है। वे कभी व्याकुल हो रोते हैं तो कभी मन ही मन भगवान के दर्शन कर हँसते हैं। रास्ते में चींटी भी दिखती तो भरत जी कूद जाते जिससे बार-बार रहूगण का सिर पालकी से टकरा जाता। राजा ये सहन ना कर सके व क्रोध से जडभरत का अपमान करने लगे। बोले- “अरे सेवक, तू तो जीते जी ही मरा हुआ है, तुझे कुछ भाव ही नहीं है, ठीक से चल वरना मैं तुझे दंड दूंगा।”

जडभरत ब्रह्मज्ञानी हैं। क्रोधित राजा पर उन्हें दया आई कि ज्ञान लेने की इच्छा से जाते हुए राजा अंहकार से कितने भरे हुए हैं। दीनता की अपेक्षा इतना अंहभाव होगा तो कपिल मुनि राजा को विद्या नहीं देंगे। इसे अधिकारी बनना होगा। जडभरत ने अपना मौन तोड़ा व राजा रहूगण को ब्रह्मज्ञान का उपदेश किया।

भरत जी ने कहा- “राजन! केवल मैं ही नहीं सारा जगत ही जीते जी मृत-सा है, इसमें हर शरीर शव के समान है। सत्य तो केवल परमात्मा ही हैं।”

व्यवहारिक दृष्टि से ही भेद है, आत्मिक दृष्टि से तुम और मैं एक ही हैं। शरीर को शक्ति देता है मन और मन को बुद्धि परन्तु बुद्धि को प्रकाशित करने वाले तो केवल श्री हरि परमात्मा ही हैं। राजन हर जीव में परमात्मा हैं यही सोच कर मैं चींटी का भी ख्याल करते हुए इस प्रकार छलांग लगाते हुए चलता हूँ।

जडभरत के ऐसे विद्वता पूर्ण कथन सुनकर राजा रहूगण अचंभित रह गए, सोचने लगे यह कोई पागल नहीं, परमहंस है, ज्ञानी महात्मा हैं, अवधूत संत हैं। इन अलौकिक ब्रह्मनिष्ठ का अपमान करके मैंने बहुत क्षति कर दी। यह सोच राजा चलती हुई पालकी से कूद पड़े। जो मारने को तैयार था, अब वंदन कर रहा है।

भरत जी तो सच्चे संत थे। अपमान व सम्मान दोनों में ही सम रहे। रहूगण के सभी प्रश्नों के उत्तर देकर उन्होंने उसे ब्रह्मज्ञान दिया- “राजन इस मन को परमात्मा में लगा दो। मन के सुधरने पर ही जगत सुधरता है। इस मन को मृगबाल में लगाने के कारण ही मुझे बार-बार जन्म लेना पड़ा। तुम मन को दण्ड दोगे तो यमराज तुम्हें दण्ड नहीं देंगे।”

संसार को स्वप्नवत जानो और मन को शुद्ध करने के लिए संतों का समागम करो। सत्संग से ज्ञान की और संतों व गुरुजनों की सेवा से ब्रह्म की प्राप्ति होती है।

सद्गुरु के आसरे से ही इस भवाटवी से बाहर निकल सकते हैं। जीव की यात्रा परमात्मा से शुरू हुई है और इस मार्ग की अंतिम अवधि भी परमात्मा ही हैं।

Comments

Popular posts from this blog

Chapter 10: The Human Goal: Moksha - Story of Kotikarna

Bhikshu Kotikarna mentioned that Moksha is to understand your true nature. (अपने असली स्वरूप को पहचानना ही मोक्ष है।). However, for a majority of us the question would remain as beautifully asked by the student in Vivekachoodamani: भ्रमेणाप्यन्यथा वाऽस्तु जीवभावः परात्मनः तदुपाधेरनादित्वान्नानादेनार्श इष्यते॥ अतोस्य जीवभावोऽपि नित्या भवति संसृतिः न निवर्तेत तन्मोक्षः कथं मे श्रीगुरो वद॥ [- १९२ & १९३] bhrameṇāpyanyathā vā'stu jīvabhāvaḥ parātmanaḥ tadupādheranāditvānnānādenārśa iṣyate. atosya jīvabhāvo'pi nityā bhavati saṁsṛtiḥ na nivarteta tanmokṣaḥ kathaṁ me śrīguro vada. [192 & 193] That the Supreme Self has come to consider itself as the jiva, through delusion or otherwise, is a superimposition which is beginning less. That which is beginning less cannot be said to have an end ! So the jiva-hood of the Self must also be without an end, ever subject to transmigration. Please tell me, O revered Teacher, how then can there be 'moksha' (liberation) for the Self? ...

हे राम !

 हे राम ! ना तुम बचें , ना सीता बची , ना लक्ष्मण , और ना हनुमान , ना लंका बची ना लंकेश , बस तेरे नाम पे आज सिर्फ़ दिवाली बची |  हे राम ! ना  प्रेम बचा , ना बचें झूठन बेर , ना अनुराग बचा , ना बचा वैराग , ना कोई त्याग , ना कोई साधना , ना कोई हठ , ना कोई पीड़ा , बस तेरे नाम पे आज सिर्फ़ दिवाली बची |  हे राम ! ना धर्म बचा , ना कोई वेद  , ना कोई भक्ति , ना कोई मुक्ति , ना साधू , ना संत , ना ज्ञानी , ना ज्ञान , बस तेरे नाम पे आज सिर्फ़ दिवाली बची |  हे राम ! ना शान्ति , ना आंनद , ना धैर्य बचा और ना कोई तपस्या , हे राम ! अब तेरे नाम पे कोई कर्म भी नहीं बचा , ना सत्य बचा और ना ही कोई खोज , बस तेरे नाम पे आज सिर्फ़ दिवाली बची |  जब कुछ नहीं बचा , हे राम ! अब तेरे नाम की यह दिवाली भी ना बचें || 

जंगल में पैदा हुए हैं , जंगल के पार जाना हैं |

जंगल में पैदा हुए हैं , जंगल के पार जाना हैं | बंदरों के बीच कूदते फांदते , गगन को छु जाना हैं |  मिट्टी का पुतला ले बैठें , उसे ऐसे तपाना हैं , माया के हर वार से , उसे कैसे बचाना हैं |  ऊचें ऊचें वृक्षों कि छाया , तमसा के समान हैं , तलाश हैं एक अखंड देव की , जिससे उसे जलाना हैं |  कुरुक्षेत्र कि युद्ध हम लड़ते , दुर्योधन को हराना हैं , जंगल में पैदा हुए हैं , बस एक सारथी का सहारा हैं |